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मुगलसराय |
बख्तियार खिलजी अफगान था और एक तुर्क सुल्तान कुतुबद्दीन ऐबक का सेनापति भी। उसने सुल्तान के आदेश पर उत्तर पूर्व भारत में सैन्य लूट का सिलसिला आरंभ किया। इसी लूट पाट और नरसंहार के क्रम में आगे बढ़ते हुए वह नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय पहुंचा। उसने देखा कि इन विश्वविद्यालयों में तो काफिरों की विद्या पढ़ाई जाती है। उसके लिए अल्लाह के दीन की शिक्षा के अलावा और किसी शिक्षा की संसार में कोई जरूरत न थी। इसलिए उसने दोनों विश्वविद्यालयों को तहस नहस कर दिया। कहते हैं उसने किताबों में आग लगवाई तो किताबें और पांडुलिपियां महीनों जलती रहीं।
यही बख्तियार खिलजी आगे बढ़ा तो पूर्वी भारत पर राज करने के लिए पटना के पास ११९३ में एक छोटा सा नगर भी बसाया। उस वक्त उसने उसका नाम रखा बेगमपुर। लेकिन वह ज्यादा दिन जिन्दा न रह सका। दस साल बाद ही उसकी मौत हो गयी। लेकिन उसने बेगमपुर नामक जो नगर बसाया था वह जिन्दा रहा और कालांतर में उसे सम्मान देने के लिए उस बेगमपुर का नाम बदलकर बख्तियारपुर कर दिया गया। इस वक्त यह बख्तियारपुर पटना शहर का ही एक हिस्सा है और यहीं से चुनकर बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार को मालूम नहीं कि जिस बख्तियार खिलजी के नाम पर बने नगर का वो प्रतिनिधित्व करते हैं उसका बिहार के विनाश में क्या योगदान है। लेकिन संभवत: नीतीश कुमार या उनके जैसे नेताओं की अपनी चेतना इतनी दमित है कि उन्हें नामों से कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए हर नाम सिर्फ एक नाम है जिसका सिर्फ भूगोल है, इतिहास नहीं। लेकिन ऐसा है नहीं। भारत में बहुत सारे नामों का भूगोल तो है ही, इतिहास भी है। कुछ का इतिहास तो इतनी क्रूर और भयावह है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएं लेकिन हमारी दमित चेतना पर कोई असर नहीं होता। हम भारत के लोग उस शराबी की तरह हो गये हैं जिसकी स्वाद ग्रंथि को शराब पी गयी है। अब उसे कुछ भी खिलाओ, उसे कोई फर्क ही महसूस नहीं होता।
अगर फर्क महसूस होता तो आजादी के बाद यूपी और बिहार में सबसे पहले नाम बदलने का काम किया जाता। वो नाम जो अपने भीतर एक क्रूर इतिहास समेटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार इसलिए पूरे इस्लामिक आक्रमण काल में सबसे ज्यादा नामकरण इसी इलाके में किये गये। नगरों से लेकर गावों तक। इस्लामिक विचारधारा के तहत नाम बदले भी गये और नये नाम रखे भी गये। पीढ़ी दर पीढ़ी ये नाम चलते रहे और आक्रमणकारियों ने इन इलाकों में रहनेवाले लोगों की पहचान मिटाकर जो नयी पहचान दी, लोगों ने उसे ही अपनी पहचान बना लिया।
अब सवाल ये है कि क्या आगे भी हमें इस पहचान को ही अपनी पहचान मान लेना चाहिए या भारतीय पहचान की पुनर्वापसी होनी चाहिए? इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि भारतीय मुसलमान भारत का अभिन्न हिस्सा हैं। भले ही आक्रमणकारी आये और लंबा इतिहास छोड़कर गये लेकिन मुसलमान का साथ हमारा वर्तमान है। क्या अगर इन नामों को बदला गया तो उससे मुसलमानों को कोई नुकसान होनेवाला है? क्या यह उनका दमन कहा जाएगा या उनकी पहचान छीन ली जाएगी?
ये सारे सवाल बेमतलब हैं। भारत में भारतीय मुसलमानों की पहली पहचान भारतीय जो उन्हें इस जमीन से मिलती है। फिर दूसरी पहचान उनके मजहब से मिलती है जिसकी जड़े सऊदी अरब में हैं। जिसे हम इस्लामी नाम कहते हैं, असल में वो इस्लामी नहीं बल्कि अरबी नाम हैं। ये नाम अरब में इस्लाम आने से पहले भी प्रयोग में लाये जाते थे। इस्लाम आने के बाद उन्होंने कोई विशिष्ट तरीके से नाम लिखना नहीं शुरु किया। मसलन, मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद का पैदाइशी नाम मोहम्मद ही था जबकि इस्लाम का प्रचार उन्होंने चालीस साल की उम्र में शुरु किया। यानी मोहम्मद नाम इस्लामिक नहीं बल्कि अरबी नाम है जो कि इस्लाम के आने से पहले अरब में चलन में था। इसलिए इसे इस्लाम से जोड़कर देखने की बजाय अरब संस्कृति से जोड़कर देखने की जरूरत है। भारत में अगर इन नामों को हटाया जाता है और उनकी जगह भारतीय नाम रखे जाते हैं तो यह इस्लाम के खिलाफ कहीं से नहीं होगा बल्कि इससे मुसलमानों की भारतीय पहचान ही मजबूत होगी।
एक और पहलू ये भी है कि कुछ लोग कहते हैं, नाम में क्या रखा है तो उनके लिए जरूरी है ये कहना कि नाम में ही सबकुछ रखा है। नाम ही हमें हमारी स्थानीय पहचान देता है। इसलिए आज कोई करे न करे, भविष्य में एक मुहिम चलाकर ये काम करना होगा कि भारत में भारतीय पहचान से जुड़े नामों की पुनर्वापसी हो ताकि वहां रहनेवाला व्यक्ति अपनी पहचान को उस जगह से जोड़ सके।