illuminati दुनिया का सबसे खतरानाक खुफ़िया समूह

illuminati एक Secret Group है जो की राक्षसों की पूजा करते है. इसका स्थापना 1776 में जर्मनी एडम विशाप ने किया और उस समय इसका नाम था "The Order Of Illuminati" यह के Secret Community है. जो भी इंसान इस Community को ज्वाइन करता है वह इसके बारे किसी और को नहीं बता सकता है. जिस तरह से हम सभी भगवान/अल्लाह/गॉड की पूजा करते है वैसे ही Illuminati के Member राक्षस यानि लुस्फिर की पूजा करते है.

शहीद उधम सिंह की आत्मकथा

मुझे जानते हो? शहर के चौक पे लगा बुत कुछ कुछ मेरी शक्ल से मिलता है और उस पर नाम लिखा रहता है – शहीद उधम सिंह। मेरी जिंदगी की दास्तान जानने की इच्छा है। कहां से शुरु करें। चलो शुरु से ही शुरु करता हूं।

कैसे बर्बाद किया गया हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को - मैकाले की अग्रेजी शिक्षा व्यवस्था

मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे।

इल्लुमिनाती क्या है ?

एक ऐसा गुप्त संगठन जो १०० से ज्यादा देशों मे परोक्ष सरकार चला रहा है जो ८०% जनता को मरना चाहता है उसके लिए अनाज को खरीद कर गोदामों मे रखता है चाहे सड जाये मगर गरीब के मुह न पडे इसी तरह से भारत मे २१००० लोग प्रति दिन मर रहै है

ईसाई मिशनरी का काला सच….!

साल 2006 में हॉलीवुड की एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म The Vinci code रिलीज हुई थी जिसे भारत में प्रदर्शित होने पर रोक लगा दिया गया था...? लेकिन क्यों, ऐसा क्या था उस फिल्म में...?

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Tuesday, July 31, 2018

शहीद उधम सिंह की आत्मकथा

शहीद उधम सिंह की आत्मकथा

तनख्वाह  – मौत
इनाम     – शहादत
पेंशन     – आजादी
कार्यक्षेत्र  – हिंदोस्तान
मुझे जानते हो? शहर के चौक पे लगा बुत कुछ कुछ मेरी शक्ल से मिलता है और उस पर नाम लिखा रहता है – शहीद उधम सिंह। मेरी जिंदगी की दास्तान जानने की इच्छा है। कहां से शुरु करें। चलो शुरु से ही शुरु करता हूं।
उन्नीसवीं सदी खत्म होने और बीसवीं सदी शुरु होने में केवल पांच दिन बाकी थे जब जन्म हुआ। हिसाब किताब लगाने लगे। 26 दिसम्बर 1899। दिन था मंगलवार।
कोई भी शख्स अपने माहौल, अपने जमाने की हलचलों और अपनी परंपरा से ही बनता है। किसी शख्सियत को जानना हो तो उस माहौल को देखो जिसमें वो पला-बढ़ा।
जन्म हुआ सुनाम कस्बे में। उस समय पटियाला रियासत का भाग था अब पंजाब का एक जिला है। पंजाब गुरुओं की धरती है। गुरुओं की शहादत और त्याग के किस्से तो घुट्टी में मिलते हैं यहां। लैला-मजनूं, शीरीं-फरहाद, सोहनी-महिवाल के प्रेम किस्से बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं। ये किस्से भी त्याग से ही शुरु होते हैं और खत्म होते हैं शहादत पर।
भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी त्याग और बलिदान की दास्तान है। पंजाब में हथियारबंद आंदोलनों व शहादत की धारा खूब परवान चढ़ी। कूका-आंदोलन, गदर-पार्टी, बब्बर अकाली, नौजवान भारत सभा, किरती पार्टी और साम्यवादी ग्रुप सब हथियारों से हिचकिचाहट नहीं करते। इन हिरावल दस्तों में लड़ाके थे – किसानों और मजदूरों के बेटे। वो इसलिए कि अंग्रेजों के जमाने में सबसे ज्यादा दुर्गति इन्हीं की हुई थी। राजे-रजवाड़े, जागीरदार तो चांदी कूट रहे थे अंग्रेजों के साथ मिलकर। आप भी लूटो और लूट में साथ दो यही था इनका जीवन-सूत्र ।
मेरे पिता छोटे किसान थे। खेती करते। मिट्टी के साथ मिट्टी होना पड़ता तब चार दाने हाथ लगते। कितना ही पैदा कर लो। शोषण की चक्की में बचता ठन-ठन गोपाल। खाने के लाले पड़े रहते। जिस बंदे को दो टाइम की रोटी नसीब ना हो उसकी सामाजिक हैसियत का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल थोड़े ही है। बड़ा असर पड़ता है बंदे की पर्सनल्टी पर काम-धंधे का। परिवार की बैकराऊंड का। किसान को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। नेचर के साथ। खुले में। गर्मी-सर्दी-बरसात, अंधेरा-उजाला। कोई विंटर वेकेशन नहीं, कोई समर वेकेशन नहीं।  भोलापन, सादगी, स्पष्टवादिता किसान के करेक्टर में रचे बसे होते हैं। एक ओर बड़ी खास बात होती है – घोर विपति भी जिंदगी का प्रसाद मानकर हंसते-हंसते खा लेना।
मां का नाम हरनाम कौर और बाप था श्री टहल सिंह। सुना है पहले मेरी मां का नाम था नरैणी था और बाप का चुहड़ राम। सोच में पड़ गए कि फिर ये नाम कैसे बदल गए। बताता हूं …
एक थे बाबू धन्ना सिंह। नीलोवाल नहर पर ओवससियर बन कर आए थे। उनका दफ्तर और घर सुनाम में था। बड़े धर्म-कर्म वाले आदमी थे। मेरे पिता उनके संपर्क में आ गए और उनसे प्रभावित होकर अमृतपान कर लिया। उस मौके पर मां नरैणी से हो गई हरनाम कौर और बापू चूहडऱाम हो गए टहलसिंह।
दरअसल खालसा पंथ की नींव रखते समय गुरु गोबिंद सिंह ने पानी के कड़ाहे में शक्कर घोली थी अपने खांडे की धार से। उसी कड़ाहे से मुंह लगाकर पिया था सबने। कोई झूठ-सूच नहीं थी।  सब बराबर। कोई जात न पांत। ऊंच ना नीच। यही है  अमृत छकना – अपने को समर्पित करने का भाव जगाने की एक क्रिया।
दरअसल बात ये थी कि बाबू धन्नासिंह ने नहर पे मेरे बापू की नौकरी भी लगवा दी थी – यही बेलदार वगैरह। कुछ लोग ये भी कहते हैं पिता जी उनके घरेलू नौकर थे। जो भी हो। एक बात पक्की है जब उनकी सुनाम से बदली हो गई तो पिता जी बेरोजगार हो गए थे।
बचपन को याद करना तो ऐसा है जैसे हथेली पे अंगारा रख दिया हो। मां की तो शक्ल भी याद नहीं। मैं जब तीन साल का भी नहीं हुआ था तो वो दुनिया से चलाणा कर गई। कहते हैं बुखार बिगड़ गया था। घर में बच गए तीन जीव।  बापू, मैं और मेरा बड़ा भाई साधु सिंह। भाई मुझसे तीन साल बड़ा था।
मां गुजर गई और बापू के पास कोई रोजगार नहीं। सोचता हूं तो मैं थोड़ा भावुक हो जाता हूं। बापू पे क्या बीती होगी? दो छोटे-छोटे बच्चे रोजगार कुछ है नहीं। पर पेट तो खाने को मांगता है।
पिता जी ने रेलवे की नौकरी कर ली। उपाली गांव में डयूटी। नौकरी थी – फाटकमैन। काम कुछ खास नहीं था। दिन में एक-दो गाड़ी गुजरती। गाड़ी आई, फाटक बंद कर दिया। गाड़ी गई, फाटक खोल दिया। सारा दिन खाली। रेलवे क्वाटर में रहते। क्वाटर क्या वह कोठड़ी ही थी। पिता जी किसान तो थे ही। आस पास की जमीन ठीक कर ली। सब्जी उगा ली। दूध पीने के लिए बकरियां पाल ली। मैं छोटा सा ही था। पर मेरा भाई साधु सिंह उनकी मदद कर देता। टाइम ठीक गुजरने लगा।
एक दिन एक घटना घटी। याद करके रोमांच हो आता है। हुआ ये था कि एक दिन सवेरे-सवेरे मुंह अंधेरे पिता जी जंगलपानी के लिए चले गए।  बकरियों के बाड़े में एक भेडिय़ा घुस आया। बकरियां मिमियायी। जानवर है तो क्या। जान तो सभी को प्यारी होती है। मेरी आंख खुल गई। मुझे इतनी अक्ल तो थी नहीं। पता नहीं कैसे हुआ। मैंने कुल्हाड़ी उठाई और भेडिय़े को दे मारी। इतने में शोर सुनकर पिता जी भी आ गए। गांव के भी कुछ लोग दौड़े दौड़े आ गए। आदमियों के आने की बीड़क सुनकर भेडिय़ा भाग गया। लोगों ने मेरे हाथ में कुल्हाड़ी देखी तो उन्होंने बड़ी शाबासी दी। मुझे बहादुर, निडऱ कहकर पीठ थपथपाने लगे। कहने लगे नाम ही शेरसिंह नहीं, बच्चे का दिल भी शेर का है।
औलाद की तारीफ सुनकर पिताजी को खुशी तो जरूर हुई होगी। लेकिन उनके मन में दहशत बैठ गई। पिता जी ने सोचा होगा किसी दिन भेडिय़ा फिर आ गया। बच्चों को खा गया तो इस नौकरी को क्या चाटूंगा? जान की सुरक्षा तो रोजगार की सुरक्षा से पहले चाहिए।
छ: महीने में ही नौकरी छोड़ दी। अपने टांडे-टिरे उठाकर चल दिए अमृतसर शहर की ओर। चल तो दिए लेकिन अमृतसर पहुंचे नहीं। रास्ते में ही उनके मौत हो गई। ये बात हैं 1907 की।  आठ साल का था मैं।
धुंधली सी याद है। इतने सालों बाद भी वो दृश्य नहीं भूलता मुझे। जब पिता जी ने हमारे दोनों भाइयों के हाथ सरदार चंचल सिंह के हाथ में पकड़ा कर कहा था, मेरे बच्चों का ख्याल रखना। इससे आगे जुबान उनके तालू से चिपक गई थी।
असल में पिता जी थे बीमार। उपाली गांव से अमृतसर के लिए चले तो रास्ते में बीमारी बढ़ गई। भैंसावाले टोबे पर उदासी संन्यासी ठहरे हुए थे। हम भी वहीं ठहर गए। पिताजी बेहोश हो गए। पिता जी की हालत देखकर उन संन्यासियों को हम पर तरस आ गया। हमें खाना दिया। पिता जी को दवाई भी दी। लेकिन बीमारी में कोई फर्क नहीं पड़ा। संन्यासियों ने भांप लिया कि पिता जी बचेंगे नहीं। वे मुझे और मेरे भाई को अपने सम्प्रदाय में शामिल करने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने हमें पीला पटका भी हमें पहनाना शुरु कर दिया था।
एक दिन वहां से तरन तारन वाले सरदार छांगा सिंह का जत्था गुजर रहा था। उसमें सुनाम के रहने वाले सरदार चंचल सिंह भी थे। उन्होंने पिता जी को देखते ही पहचान लिया। पिता जी ने हम दोनों के हाथ सरदार चंचल सिंह के हाथ में पकड़ा दिए और बड़ी ही दीनता से कहा मेरे बेटों का ध्यान रखना। सरदार चंचल सिंह पिता जी को और हमें तांगे में ले गए। पिता जी को अस्पताल में दाखिल करवा दिया। वहां डाक्टर ने जांच की और आश्वासन दिया कि ठीक हो जायेंगे। चंचल सिंह जी हमें साथ लेकर घर चले गए। जब अगले दिन अस्पताल पहुंचे तो हमें अनाथ होने की सूचना मिली। मुझे सिर्फ इतना याद है कि साधूसिंह तो बुक्का फाड़ के रोये जा रहा था और सरदार चंचल सिंह हमारे सिर पर हाथ रखे हमें दिलासा दे रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उनको देखकर मैं भी सुबकने लगा था।
जिंदगी का दूसरा अध्याय शुरु हो गया। हम पहुंच गए सेट्रल सिक्ख अनाथाश्रम, अमृतसर में।
वहां पहुंचने की कहानी ये है। सरदार चंचलसिंह थे – धर्म प्रचारक। उन्होंने जाना था अपने जत्थे के साथ बर्मा। घर पे कोई था नहीं जो हमारी देखभाल करता। उन्होंने सोचा कि हमारे लिए अनाथाश्रम ही ठीक है। 24 अक्तूबर 1907 को सरदार छांगा सिंह और किशन सिंह रागी ने हमें दाखिल करवा दिया। पूरा रिकार्ड है। अनाथाश्रम के दाखिल-खारिज रजिस्टर में मेरा नाम दर्ज है शेर सिंह और भाई का साधु सिंह।
आप कन्फूयज न हों? क्रांतिकारी के लिए नाम बदलना जरूरी सा हो जाता है कई बार। मेरे नामों की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मां-बाप ने मेरा नाम रखा था – शेरसिंह। उधमसिंह नाम तो मेरा तब पड़ा जब मैं जिंदगी के चौंतीस साल बिता चुका था। 20 मार्च 1933 को लाहौर से उधम सिंह के नाम से मैंने पासपोर्ट बनवाया। तभी से उधमसिंह मेरा नाम है। ये इसलिए किया क्योंकि 1927 में मुझ पर मुकदमा बना। गदरी साहित्य और गैर-कानूनी हथियार रखने के जुर्म में। सजा हुई। मेरे सारे नाम फ्रेंक ब्राजील, उधे सिंह, उदय सिंह, शेर सिंह वगैरह सब पुलिस रिकार्ड में आ चुके थे। मुझे उन देशों का वीजा नहीं दिया जा रहा था जिनमें गदर पार्टी का असर था।
जब अनाथाश्रम में दाखिल हुआ तो मेरा नाम उधे सिंह कर दिया। मेरे भाई का नाम भी बदल दिया था। साधु सिंह से मुक्ता सिंह।
मेरा एक ओर नाम है … जिसे मैं बहुत पसंद करता हूं। यह मैने खुद ही रखा है। पता है क्या ? मोहम्मद सिंह आजाद। मैंने बाजू पर टैटू बनवाया हुआ है इस नाम का। जब कैक्सटन हाल में मैंने ओडवायर को गोली मारी तो मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से ही मैने पुलिस को बयान दिया था। मंैने कहा था कि मेरा नाम ना बदल देना। मेरा नाम है मोहम्मद सिंह आजाद।
मेरे जैसे  वक्त के मारों के लिए वरदान था अनाथाश्रम। अनाथाश्रम में रहा दस साल। उस समय अनाथाश्रम के मैनेजर थे सरदार सोहनसिंह बाबू धन्ना सिंह के दामाद। वही ओवरसीयर बाबू धन्ना सिंह जिन्होंने मेरे बापू जी की नौकरी लगवाई थी। बाबू धन्नासिंह की बेटी सरदारनी मायादेवी ने साधूसिंह को पहचान लिया था।
अनाथाश्रम की जिंदगी बाहर जिंदगी से कुछ अलग थी। बंधा-बंधाया नीरस सा रूटीन। सुबह उठो। शौच जाओ। नहाओ। पाठ करो। नाश्ता करो। फिर दो तीन घंटे कुछ काम करो। दोपहर का खाना खाओ। शाम कुछ खेल लो। फिर खाना खाओ। पाठ करो। सो जाओ। हर रोज वही रूटीन।
जिंदगी के सबक यहीं सीखे। घूमने निकल जाते जिधर मन करता। रेलवे स्टेशन, रामबाग, हाल बाजार, सिविल लाइन। कहीं भी। जलसा-जुलूस निकलता तो लेते साथ साथ। बड़ा मजा आता जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने में।           एक बात जिसने मुझे तोड़ दिया ये थी कि मेरे भाई साधु सिंह भी मुझे दुनिया में अकेला छोड़ गए। निमोनिया बिगड़ गया था। ये बात है 1917 की।  मन बहुत ही उदास हो गया था। लगता था दुनिया ही उजड़ गई। मन में बुरे बुरे ख्याल आते।
अनाथाश्रम में सबको कुछ न कुछ काम करना पड़ता। मेरा मन पेचकस-प्लास में लगता। मशीनों के साथ मजा आता। नतीजा ये हुआ कि मैं मकैनिक बन गया। ये हुनर जिंदगी भर काम आया। दुनिया में कहीं भी गया इसी हुनर से अपनी जगह बना ली। साईकिल-मोटर साईकिल मैं ठीक कर देता। लकड़ी-लोहे का सारा काम मैं कर लेता। बिजली का काम मैं कर लेता। मेरा हाथ साफ था। दोस्त-मित्र मुझे इंजीनियर कहते। मजे की बात है अमेरिकी रिकार्ड में भी इंजीनियर लिखा है। औपचारिक शिक्षा की डिग्री कोई थी नहीं। हां उर्दू, गुरमुखी पढ़-लिख लेता और कामचलाऊ अंग्रेंजी भी। अंग्रेजी सरकार के रिकार्ड में भी मुझे कम पढ़ा लिखा यानी पुअर एजुकेटिड़ ही बताया है।
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार के बारे में पूरा याद है। उसको कैसे भूल सकता हूं। उस घटना ने विचलित कर दिया था मुझे। वो मंजर कभी भूल नहीं पाया। अमृतसर में कई साल बाद तक इस घटना के चर्चे रहे। मैं लोगों की दास्तान सुनता तो मेरा खून खौलने लगता। एक अजीब सी चीज मेरे अंदर पनप गई। डायर से मुझे नफरत हो गई। उसका जिक्र आते ही आंखों में खून उतर आता। उस जालिम ने 1650 राऊंड गोलियां चलाई थी। सरकारी रिकार्ड की मानें 379 आदमियों की मौत हो गई थी। प्राईवेट रिपोर्टं और भी ज्यादा बताती हैं। कितने तो बच्चे और औरतें थी। बाग में एक कुंआ था सैंकड़ों लाशें तो उसी से निकली थीं।
जलियांवाला बाग कोई बाग नहीं था, बल्कि एक मैदान था। तीन तरफ तो मकानों की पिछली दीवारें थीं ऊंची- ऊंची। एक तरफ से ही अंदर-बाहर आने-जाने का संकरा सा रास्ता था। वहां एक जलसा हो रहा था। हजारों लोग थे इसमें। अंग्रेज अफसर जनरल डायर फौजी दस्ते के साथ आया और दनादन गोलियां चलानी शुरु कर दी। न उसने चेतावनी दी। ना जाने के लिए कहा। गोलियां चली धांय-धांय। भगदड़ मच गई। हाहाकार मच गया।
गोलियां उसने इसलिए चलाई कि वह अंग्रेजी राज का विरोध करने वालों में दहशत पैदा करना चाहता था। असल में 1914 से 1918 तक विश्व युद्ध हुआ। इसमें भारतीयों ने अंग्रेजों का साथ दिया। उनको उम्मीद थी कि युद्ध के बाद अंग्रेज कुछ राहत देंगे। पर हुआ एकदम विपरीत। एक कानून लागू किया। उसका नाम था रोलेट एक्ट। इस कानून में सरकार किसी को भी गिरफ्तार करती। जेल में डालती। ना वकील, ना दलील, ना अपील। लोगों को गुस्सा आया। विरोध शुरु कर दिया। अमृतसर में विरोध बहुत तीखा था। इसको कुचलने के लिए यहां के दो बड़े नेता डा. सत्यपाल गुप्त और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर लिया। उनकी गैर कानूनी गिरफ्तारी के विरोध में था ये जलसा-जुलूस। असल में पूरा शहर ही उमड़ पड़ा था।
शहर के साथ देहात से भी लोग शामिल थे। असल में लोगों का जीना दूभर हो गया था। विश्व युद्ध लोगों के लिए लेकर आया था – कंगाली, भुखमरी, दरिद्रता।     युद्ध खत्म होने के बाद गेहूं, जौं, ज्वार, बाजरा, चना, मक्का, कपड़े सभी की कीमतें तीन-तीन चार-चार गुना तक बढ़ गई थी।
अपने समय के क्रांतिकारियों से मिला कि नहीं मिला। ये बात तो जानने लायक है। भगतसिंह तो मेरा ब्रेन-फ्रेंड है मानस-मित्र। मेरा सबसे प्यारा दोस्त। हमेशा मेरे साथ ही रहता है। ये देखो उसकी फोटो हमेशा साथ रखता हूं। वो मुझसे नौ साल बाद दुनिया में आया, पर नौ साल पहले शहीद हो गया। बड़ा फास्ट था बंदा। उससे मुझे बड़ी प्रेरणा मिलती है। उसने अपने छोटे भाई कुलतार को पत्र में लिखा था ना –
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली
ये मुश्ते खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे।
मेरे दिलों-दिमाग में भगतसिंह के ख्याल की बिजली दौड़ती रही। पता वो ख्याल क्या था? दुनिया से शोषण के बीज का खात्मा हो। इंकलाब हो। मैं कहता हूं जिसके दिल में ये ख्याल नहीं वो इंसान ही नहीं।
जब उसे शहीद किया गया। उन दिनों मैं  मुलतान जेल में था। हुआ यूं था कि अगस्त 1927 को मैं अमृतसर में था। अचानक एक पुलिस वाले ने पीछे से मुझे पकड़ लिया। चार पुलिस वाले थे। मैं कुछ समझता इससे पहले ही इंस्पेक्टर बोला – हमें गुप्त सूत्रों से तेरे बारे में सूचना मिली है। और मेरी तलाशी लेने लगे। मेरे पास पिस्तौल थी। लाईसेंस था नहीं। फिर वो पूछने लगे कि बाकी सामान कहा है। मैं काल्हा सिंह की वर्कशाप पर रूका हुआ था। वहां मेरी अटैची की तलाशी ली। उसमें कुछ रसीदें थी, काला बटुआ था, कुछ सर्टीफिकेट, 6 फोटो।  और कुछ गदर पार्टी का साहित्य। गदर की गूंज, रूसी गदर ज्ञान समाचार, पम्फलेंट गुलामी का जहर, गदर की दूरी, देशभक्तों की जान।
उन्होंने पूछा  कहां से आए हो। मैने बता दिया। अमेरिका से। अमेरिका से आया कराची और कराची से अमृतसर। फिर पूछने लगे किसलिए आए हो तेरा जिंदगी का मकसद क्या है। मैने भी सच्ची बात बता दी कि मैं स्पष्ट तौर पर कहता हूं कि मेरा मकसद यूरोपियनों को मारना है, जो भारतीयों पर शासन करते हैं और मुझे बोल्शेविकों से पूरी हमदर्दी है। उनका मकसद भारत को विदेशी नियंत्रण से मुक्त करवाना है।’’ बस बना दिया गैर कानूनी हथियार  और राजद्रोही साहित्य रखने का केस। पांच साल की सजा काटी।
अमरीका में कई जगह रहा कैलिफोॢनया, न्यूयार्क, शिकागो। अमरीका में गदर पार्टी के कामरेडों से संपर्क हुआ। उनकी बातें सुनकर तो रोंगटे खड़े हो जाते। वहां कामागाटा मारू जहाज के किस्से सुनता। गदरियों की कुरबानी के रोमांचक प्रसंग सुनकर मन में शहादत जोश मारती। अंग्रेजों के शोषण व जुल्म की दास्तान सुनकर उनसे चिढ़ होती। दुनिया में घट रही घटनाओं पर चर्चा होती। रूसी क्रांति की बातें चलतीं। पता चलता कि मजदूरों और किसानों ने जुल्म का जुआ उतार फेंका। ऐसा राज स्थापित किया है जिसमें गरीब-अमीर, शोषक-शोषित हैं ही नहीं। ये बातें बड़ी अच्छी लगती। अप्पां भी मेहनतकश तबके से ही थे। दिमाग में पक्की तौर पर बैठ गया कि दुनिया में सारे जुल्म-अत्याचार, युद्ध-फसादों की जड़ शोषण है। दुनिया में कोई देश दूसरे देश का और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए कोशिश करनी चाहिए। जो दुनिया में इस तरह के प्रयास कर रहा है वो अपना दोस्त है। रूस के क्रांतिकारियों से हमदर्दी हो गई।
मेरे जेहन में लाला हरदयाल के शब्द गूंजते रहते। हमारा नाम है गदर। हमारा काम है गदर। भारत में होगा गदर। गदर होगा जब कलम बनेगी बंदूक। स्याही होगी खून।
गदर पार्टी की सोच मेरी सोच बन गई थी। मैं एक भारतीय के नाते और किसान के तौर पर अंग्रेजी शासन को भारतीयों की जिंदगी के लिए हानिकारक समझता।
पूंजीपति और बड़े जमींदार देश की पैदावार हड़प लेते। मौज उड़ाते, ऐश कूटते। हाई स्टैंडर्ड का जीवन जीते। लोगों की मेहनत की लूट-खसोट के बल पर। देश के लोगों के उत्थान में रत्ती भर योगदान नहीं। न स्कूल खोलने में ना रोजगार देने में। चौबीसों घंटे खेतों में खटते किसान। दाने-दाने को मोहताज। मेहनतकश मजदूर खून पसीना एक करते पर भूखों मरते। रोटी-कपड़ा-मकान, पढाई-दवाई हर चीज को तरसते।
अंग्रेेजों ने हमारे देश को एक जेल और नरक में तबदील कर दिया । भारतीय राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में मारपीट की जाती। असहनीय कष्ट और तिरस्कृत किया जाता।  महिलाओं के बाल पकड़ कर गलियों में घसीट जाता। अपमानित किया जाता। पैने औजार उनके शरीर में चुभोए जाते। इससे बहुत लोग पागल हो गए। बहुत से लोग अंग्रेजों के वहशी खूनी अत्याचारों से मर गए।  बहुत से लोगों के चेहरे के अंग काट दिए। आंखें निकाल दी।
अंग्रेेजी आतंकवाद  भारतीयों को कुचल नहीं सकता। अंग्रेजी आतंकवाद के साये में दयनीय हालत में जीने की बजाए अपने लोगों की खातिर मरना पसंद। मैं और मेरे देश के लोग अंग्रेजी साम्राज्यवाद के अधीन रहने के लिए इस संसार में पैदा नहीं हुए। मैं सोचता कि ताकत से ही अंग्रेजों को भारत से निकालना संभव होगा।
ऐसे ऐसे विचार दिमाग में आने लगे। मैं खुद ही हैरान था कि मुझे क्या हो गया। असल में अपने लोगों से हमदर्दी उनकी तकलीफें दूर करने के संघर्ष में दिमाग में नए नए विचार व योजनाएं आतीं। खुद से आगे निकल कर देखते हैं तो एक नई रोशनी  दिखाई देती है।
डायरेक्टर इंटेलीजेंस ब्यूरो, गृह विभाग, भारत सरकार की ओर से सन 1934 में ‘गदर डायरेक्टरी’ जारी की गई थी। जिसमें अमरीका, यूरोप, अफगानिस्तान और भारत में गदर आंदोलन में हिस्सा लेने वाले लोगों के नाम शामिल हैं। इस डायरेक्टरी में नंबर एस 44 (पृ. 267) पर उधम सिंह का नाम भी दर्ज है।
पैर में ही कुछ चक्कर था। कहीं टिक के नहीं बैठ सका। पिता जी भी सुनाम से उपाली। और उपाली से अमृतसर की ओर। मैने तो दुनिया के अनेक देशों की धरती देखी। इंग्लैंड का तो सभी को पता है वहां कैक्सटन हाल में गोली मारने के बाद तो मशहूर हो गया सारी दुनिया में। अमेरिका, अफ्रीका। भतेरे धक्के खाए बड़े पापड़ बेले। ये पूछो कहां कहां नहीं गया। कुछ समय काश्मीर में साधु का बाणा बनाकर भी रहा। पर मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना हमेशा जोर मारती रही।
1934 में पहुंचा इंग्लैंड। वहां एक जगह नहीं रहा। रोजी-रोटी के लिए कई काम बदले। कई ठिकाने बदले। मोटर-मिस्त्री रहा। कारपेंटरी की। फेरी लगाई। दिहाड़ी भी की। ड्राईवरी भी की।
फिल्मों में भी काम किया।’साबू द ऐलींफेंट ब्वाय’ और ‘द फोर फैदर’ में। ‘एक्सट्रा’ के तौर पर। एक हंगरी के पत्रकार और फिल्म-निर्माता थे – एलेग्जेंडर कोरडा। उसने अपना स्टूडियो बनाया था और उसने दो फिल्में बनाई थी गैर युरोपियन कलाकारों को स्पोर्ट करने के लिए। ये 1936 की बात है। असल में एक गोरी महिला फिल्म स्टूडियो में एक्सट्रा कलाकार थी। मैं उसके सम्पर्क में था। लंदन के पश्चिमी छोर पर रहती थी वह।
1938 इग्लैंड में एक झूठा केस भी दर्ज करवा दिया था मुझ पर। जबरदस्ती पैसे ऐंठने का। इसमें मेरे 200 पौंड खर्च हो गए। मेरी कार जब्त कर ली गई। मुझे नौकरी से निकाल दिया। पांच महीने बाद पहली ही पेशी पर खारिज हो गया था। इसमें कोई अंग्रेज नहीं था बल्कि अपने इंडियन के बीच ही विवाद था।
लंदन में शैफर्ड बुश गुरुद्वारे में मिलता था दोस्तों से। किसी से बहुत खास घनिष्ठता तो नहीं थी। कुछ ही दोस्त थे। शिव सिंह जौहल था। वह मुझे बावा कहता, इसलिए कि मुझे सांसारिक चीजों से कोई मोह नहीं था। और भी कुछ दोस्तों का नाम लिया जा सकता है। सरदार अर्जन सिंह पहलवान थे, सरदार गुरबचन सिंह। सरदार सुरेन सिंह, सरदार कबूल सिंह, सरदार नाजर सिंह, सरदार प्रीतम सिंह, बाबू करम सिंह। खूब हंसी-ठ_ा करते। ताश खेलते। पार्टियां करते। खूब खाते-पीते। एक-दूसरे की टांग खिंचाई करते। वही इंडियन चुटकले। यही थी अपनी दुनिया लंदन में।
ये सारे पंजाब से ही थे कोई जालंधर के पास गांव से कोई लुधियाना के किसी गांव से। पंजाब के लोग इक_े हों और पंजाब की बात ना हो ये कैसे हो सकता है। परदेश में अपनी भाषा में बात करने का मजा तो दुगुना हो जाता है। अपना पंजाब याद आ जाता। असल में हम रहते तो लंदन में थे पर बातें पंजाब की ही करते। अपने वतन की बात चलते ही मक्के की रोटी और सरसों के साग का स्वाद मुंह में तैर जाता। आंखों में अजीब सा शुरुर। एक-एक बात याद आने लगती। जलियांवाला की बातें चलती। अंग्रेजों का जुल्म-अत्याचार और अपने लोगों की बेबसी। बातों-बातों में भगतसिंह का जिक्र भी आ जाता। मैं कहता एक दिन तुम भगतसिंह की तरह ही मेरी बातें करोगे अपने पोते-पोतियों को सुनाओगे मेरी शहादत के किस्से। जब मैं ऐसे कहता तो कोई मेरी बात पे यकीन ही नहीं करता था। दोस्त मित्र शादी-विवाह का जिक्र करते। उन्हें क्या पता था अपनी शादी तो फंदे से पक्की हो गई थी।
13 मार्च 1940 को हुई थी कैक्सटन हाल वाली घटना। वहां मैं नया सूट पहनकर और हैट लगाकर गया था। अपने अल्टीमेट सफर के लिए। घटना के बाद जर्मन आकाशवाणी ने सही ही प्रसारित किया था कि हाथी और भारतीय कभी भूलते नहीं वो बीस साल बाद भी प्रतिशोध ले लेते हैं।
मीटिंग दोपहर तीन बजे शुरु होनी थी और लगभग साढ़े चार तक चलनी थी। टिकट पर ही अंदर जा सकते थे। डेढ़ सौ के करीब लोग मौजूद थे। 130 तो सीटें ही थी। बाकी लोग आने-जाने के रास्तों में भी खड़े थे। मैं दाएं तरफ के रास्ते में खड़ा था सामने वाली कुर्सियों के पास ही। मिटिंग खत्म हुई। लोग जाने की तैयारी में थे। मैंने चार लोगों को गोली मारी थीं। कुल छह गोलियां चलाई थी। ओडवायर तो मौके पर ही चित हो गया था। बाकी घायल हो गए थे। जेटलैंड, लेमिगंटन। गोली चलाने के बाद मैं बाहर निकलने के लिए लपका तो बरथा हेरिंग नाम की महिला ने मेरा रास्ता रोक लिया और मेरे कंधे पकड़ लिए। तभी हैरी रिच्स ने मेरे कंधों पर झपट्टा मारा। मैं गिर गया। मेरे हाथ से रिवाल्वर भी छूट गई। रिच्स ने रिवाल्वर को दूर सरका दिया। इतनी देर में पुलिस पहुंच गई।
इसका मुझे कभी अफसोस नहीं हुआ। अफसोस मुझे इस बात का था कि केवल एक ही मरा। असल में रास्ते में कुछ महिलाएं थीं इस कारण शायद। उस समय मैं किस अवस्था में था मैं अपना बयान पढ़ देता हूं अंदाजा लगा लेना। मैने वही लिखवाया था जो सच था।
बयान से पहले एक बात बता दूं मेरे गोली चलाने के बाद दहशत इतनी थी कि उस बिल्डिंग की रसोई में काम करने वाले वेटर और दफ्तर के चपरासियों तक को भी बाहर नहीं आने दिया गया था। पूरी तरह सील कर दिया था।
डिकैक्टिव इंस्पैक्टर डीटन ने मुझसे पूछा – क्या तूं अंग्रेजी समझता है। मैने कहा – हां। डीटन  कहने लगा – तुम्हें हिरासत में लिया जाएगा। पूछताछ के लिए।
मैने कहा – इसका कोई फायदा नहीं। यह सब खत्म हो चुका है। एक सारजैंट जोन्स था वह मुझसे मिली वस्तुओं की सूची बना रहा था। उसमें लिनोलीयम चाकू था। मैने कहा – ये तो इसलिए रख लिया था क्योंकि कुछ दिन पहले लफंगों की टोली ने मुझे केमडन टाऊन में घेर लिया था।
सारजेंट जोन्स ने सलाह दी – ज्यादा न बोल। पर मुझे क्या परवाह थी मैने कहा – मैंने यह इसलिए किया, क्योंकि मुझे उससे चिढ़ थी और वह इसका हकदार था। मेरा किसी सोसायटी या ग्रुप से संबंध नहीं है। — मुझे इसकी कोई परवाह नहीं।  मैं मौत से नहीं डरता। इसका क्या फायदा, मरने के लिए बुढ़ापे तक इंतजार करो, यह कोई अच्छी बात नहीं। तब मरना चाहिए, जब आप जवान हो, यह ठीक है। मैं भी यही कर रहा हूं।
मेरी बात सुनकर जोन्स बोला  – जो कुछ बोल रहा है ना, अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया जाएगा।
मैने कहा – मैं अपने देश के लिए मर रहा हूं, मुझे अखबार मिलेगा। मैंने पूछा – जैटलैंड मर गया क्या। ये भी मरना चाहिए। मैंने उसको भी बक्खी में दो गोलियां मारी हैं — मैंने यह पिस्तौल बैरन माऊथ से एक फौजी से खरीदी थी। तुझे पता? मैंने उसके लिए कुछ शराब खरीदी थी। — जब मैं चार-पांच साल का था मेरे मां-बाप गुजर गए। मेरे पास जो जायदाद थी, मैंने बेच दी। जब मैं इंग्लैंड आया, मेरे पास 200 पौंड से ऊपर थे । — सिर्फ एक ही मरा, ओह?  मेरा यकीन था कि मैंने कईयों को मार दिया होगा। मैं काफी सुस्त रहा हूंगा। तुझे पता? वहां रास्ते पर कई औरतें थी।
इस कार्रवाई में आठ बजकर पचास मिनट हो गए। जोन्स बोला – मैं तुझे कैनन रोंअ पुलिस स्टेशन ले जा रहा हूं। वहां तेरे पर सर माईकल ओडवायर को कत्ल करने का मुकद्दमा दर्ज किया जाएगा।
मैने भी कहा कि  – मैं तुझे बताऊंगा, मैंने कैसे अपना रोष प्रकट किया है। मुझे कैनल रोअ पुलिस स्टेशन ले गए। वहां मेरी उंगलियों के निशान लिए। मेरा नाम-गाम पूछ कर सारजैंट जोन्स कहने लगा लिखवा अपना बयान।
मैने जो बयान लिखवाया वो ये है –  मुझे इस बारे में डिवीजनल डिटैक्टिव इंस्पैक्टर सवैन ने सुपरिडैंट सैंडज की मौजूदगी में सचेत किया कि यह वह बयान है कि जिसके आधार पर मुकद्दमा चलेगा। मैं जानता हूं कि जो कुछ मैं कहूंगा, वह अदालत में पेश किया जाएगा।
कल लगभग सुबह 11.39 बजे मैं भारत के आफिस गया,  सर हुसन सूरावर्दी को मिलने। गेटकीपर ने मुझे कहा कि वह बाहर गया हुआ है। उसने मुझे इंतजार करने को कहा। मैं वेटिंग रूम में गया, वहां पहले ही तीन-चार लोग बैठे थे। जब मैं बाहर निकल रहा था, तो एक नोटिस लगा देखा – कैक्सटन हाल में एक मीटिंग होगी। मैं बाहर आ गया। गेटकीपर ने कहा कि वह सर हुसन को 3.45 बजे शाम को मिल सकता है। मैं वहां से चल दिया और फिर वापस नहीं गया। मैंने सोचा था कि मैं उसको आज सुबह मिलूंगा, ताकि पासपोर्ट में आ रही दिक्कत के लिए मदद ले सके। सुबह (आज) मैं सर हुसन को मिलने के इरादे से उठा, पर फिर मेरा मन बदल गया। मैंने सोचा कि वह मेरी मदद नहीं कर सकेगा। आज सुबह जब मैं कमरे से निकला तो मैंने सोचा कि लैस्टर स्क्वेेयर में पाल रोब्सन की फिल्म देखी जाए। मैं वहां गया। परन्तु सिनेमा अभी खुला नहीं था। मैं फिर घर वापिस आ गया।  मैंने सोचा कि शाम वाली मीटिंग में जाऊं। विरोध प्रकट करने के लिए मैं घर से अपना पिस्तौल साथ ले गया, विरोध व्यक्त करने के लिए। मीटिंग की शुरूआत में मैं पीछे खड़ा था। मैंने पिस्तौल किसी को मारने के इरादे से नहीं उठाई, केवल विरोध व्यक्त करने के लिए। खैर, जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, मैंने पिस्तौल अपनी जेब से बाहर निकाली और गोली चलाई। मेरे ख्याल से दीवार पर गोली मैंने रोष व्यक्त करने के लिए ही चलाई। मैंने ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत में लोगों को भूख से मरते हुए देखा है। मेरा यह पिस्तौल तीन-चार बार चला। मुझे रोष प्रकट करने का कोई अफसोस नहीं। देश के रोष को व्यक्त करने के लिए इस बात की चिंता नहीं कि सजा होगी। 10, 20 व 50 साल की कैद या फांसी। मैंने अपना फर्ज निभा दिया, पर असल में मेरा मकसद किसी व्यक्ति की जान लेना नहीं था। क्या आप जानते हो, मेरा मतलब तो केवल विरोध प्रकट करना था, आप जानते हो।
देखो मेरे दस्तखत भी हैं इस पर –  मोहम्मद सिंह आजाद
मेरे बारे में सारा रिकार्ड इकट्ठा कर लिया इंडिया से भी मंगवा लिया। कुछ बातें तो ऐसी थी जिसका मुझे भी नहीं पता था। टोटली मनघडंत। पता ही है आपको पुलिस कैसी कैसी कहानियां बनाती है। सारी रिपोर्टों का लब्बो-लुबाब ये था कि इंकलाबी है और मैं हिंसा में विश्वास करता है। मुझ पर केस चल पड़ा।
ओडवायर को गोली मारने पर नेताओं ने मेरी खासी निंदा की थी। उसका मुझे कोई अफसोस नहीं और न ही कोई गिला शिकवा रहा। कुछ ऐसे थे जो वास्तव में ही खून-खराबे को पंसद नहीं करते थे। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो राजनीतिक हालात के हिसाब से ऐसा कर रहे थे। उस समय दूसरा विश्व युद्ध पूरे जोरों पर था। जर्मनी इंग्लैंड की फौजों को पछाड़ रहा था और इग्लैंड-फ्र्रांस इस कोशिश में थे कि जर्मनी का मुंह रूस की तरफ मोड़ दिया जाए। सयाने बहुत थे गोरे शासक। एक तीर से दो शिकार करना चाह रहे थे।
ऐसा भी नहीं है कि मेरे कारनामे की सारे ही निंदा कर रहे थे, बहुत लोग खुश भी थे। लेकिन खुशी जाहिर करते कैसे। पहरे लगे हुए थे खुशी पर। डर सच्चा था। लंदन में क्या पूरे इंग्लैंड में ही भारतीयों को शक की निगाह से देखना शुरु कर दिया था। पकड़कर लगते टटोलने। जैसे स्कूल में फ्लाईंग वाले बच्चों की जुराबें उतरवाकर सुंघते हैं। तलाशी लेने के बहाने।
शासक चाहे कितना ही क्रूर हो और कितना ही तानाशाह। सच्चाई अपना रास्ता बना ही लेती है। अखबारों ने तो घटना को जैसे छापा हो। रेडियो ने भी चाहे अपने तरीके से बताया। एक मेरे आयरिश दोस्त बॉब कोनोली ने बड़ा नायाब तरीका निकाला। उसको याद करता हूं तो उसका मासूम सा चेहरा आंखों के आगे घूम जाता है। सोच भी नहीं सकता था कि वो इतना साहसिक कारनामा भी कर सकता है। उसने हाथ से एक पोस्टर लिखा और अपनी छाती पर चिपका लिया। घूमता रहा पार्लियामेंट और कैक्सटन हाल के बीच। सारे लंदन में चर्चा थी इसकी। अपने खून से चि_ी लिखकर मुझे जेल के पते पर भेजी थी। मुझे नहीं मिली। उसके मजमून को पढ़कर मुर्दों में भी जोश आ जाए। लिखा था – ‘लांग लिव सिंह’, ‘डाऊन विद ब्रिटिश इंपीरिलिज्म’, ‘डाऊन विद ब्रिटिश रूल इन इंडिया’।
मुझे इसका अफसोस नहीं था कि लंदन में और भारत में कथित विभिन्न संस्थाओं के पदाधिकारी व मौजिज लोग मेरे किए की निंदा कर रहे थे। असल में उनको हमेशा सत्ता की नजर देखनी होती है। एक अफसोस जरूर था कि मेरी आवाज अंग्रेजी साम्राज्य फाईलों में ही दबकर रह गई। मेरे देश के लोगों तक नहीं पहुंची।
धन्यवादी होना चाहिए ग्रेट ब्रिटेन की इंडियन वर्कर्स एसोसियेसन के महासचिव कामरेड अवतार सिंह जौहल का। उन्होंने  छप्पन साल बाद 1996-97 में उधमसिंह के बयान देश के लोगों तक पहुंचाने में बड़ी मेहनत की।
आप के दिमाग में एक सवाल चक्कर काट रहा होगा। जलियांवाला बाग में गोलियां तो जनरल डायर ने चलवाई थी। वो तो पहले ही मर चुका था बीमार होकर। फिर ओडवायर को गलती से मारा क्या। ये कोई मिस्टेकन आइडेंटिटी नहीं थी। न मैं रक्त पिपासु कीलर था। जनरल डायर या ओडवायर से मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी भी नहीं थी। डायर ने जलियांवाला में गोलियां चलवाई तो ओडवायर ने उसके इस कुकृत्य को उचित ठहराया था।
डायर हो या ओडवायर ये सब साम्राज्यी टकसाल में ढले सिक्के थे। उनके नामों और ओहदों का ही अंतर था विचारों और कामों में कोई अंतर नहीं था। सब भारतीयों का मजाक उड़ाते। तिरस्कार करते। मैंने गोली भारत में राज करने वाली साम्राज्यवादी मशीनरी पर चलाई थी। ओडवायर तो उसका प्रतीक मात्र था। फिर गाहे-बगाहे ओडवायर भारत में अपने कुकृत्यों की डींगें भी मारता रहता। कहता कि भारतीयों पर डण्डा-रूल ही उचित है।
शायद मेरी ये सोच भी थी कि पहले विश्व युद्ध के बाद तो अंग्रेजों ने तोहफे में जलियांवाला बाग काण्ड दिया था। दूसरे युद्ध के बाद भी वे बाज नहीं आयेंगे। हो सकता है मेरा सोचना गलत रहा हो पर मैं सोचता था कि फिर हजारों भारतीयों का कत्ल होगा, जैसे कि पिछले युद्ध के समय हुआ था।
मैं सोचता कि अब समय आ गया है कि उठें और उन अंग्र्रेजी साम्राज्यवादी गिद्धों को दिखा दें कि अब वे लंबे समय तक हमारे लोगों का खून नहीं चूस सकेंगे और न ही लोगों को मेरी प्यारी भूमि से वंचित कर सकेंगे।
मैं ब्रिक्सटन जेल में था।  यदि कोई मुझे कैदी कहता तो मैं कहता कि मैं ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शाही मेहमान हूं। उन्होंने मेरे लिए काफी अच्छी सुरक्षा कर रखी है। इतने बाडीगार्ड मिले हुए हैं। आरामदायक जगह थी ये पर मुझे तो इससे भी आरामदायक जगह का इंतजार था। आप समझ रहे मैं क्या कहना चाह रहा हूं।
मुझे पक्का यकीन था कि मुझे फांसी दी जाएगी। मैंने पांच साल जेल में काटे थे उस समय सैंकड़ों लोगों को फांसी पर लटकाया गया था। मुझे फांसी का खौफ नहीं था। लार्ड जीसस को भी फांसी दी गई थी। इसलिए मैं कहता कि सिर्फ अच्छे लोगों के साथ ही ऐसा होता है। बहुत से लोग कहते कि उन्होंने लार्ड जीसस को देखा है। कितने ही सैंकड़ों सालों बाद। लेकिन मैं नहीं देख सका। तभी तो मैं कहता हूं कि ये कोरा झूठ है। मैं सारे संसार में घूमा हूं मुझे वह कभी नहीं मिला। मैं कहता हूं भगवान ने उस कौम के हालात नहीं बदले, जिसके पास बदलाव का विचार नहीं।
जेल के भी कुछ कायदे-कानून होते हैं। कैदी के भी कुछ अधिकार होते हैं। जेल में पुस्तकों के साथ अच्छा समय बीतता है। मैं दोस्तों से पुस्तकें मंगवाता। वे भेजते। पर मुझे नहीं मिलती। मेरी चिट्ठियां ना मिलती। हर रोज नहाने की सुविधा नहीं। दस दिन बाद नहाने को मिलता। मैंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। 24 अप्रैल 1940 से। जब मेरा वजन घटने लगा। 9 मई को मेडिकल आफिसर ने जबरदस्ती खाना खिलाने की हिदायत कर दी।
इसके लिए एक स्पेशल  कुर्सी थी। भारी सी। उस पर बैठाया जाता। एक बंदा पीछे से सिर पकड़कर ऊपर कर लेता। डाक्टर जबड़ों को खोलता। एक रबड़ की नली गले में घुसेड़कर खाना सीधा पेट में डाल दिया जाता। बड़ा पीड़ादायक होता ये सब। मन खराब हो जाता। उल्टी करने का मन करता। 40 दिन तक रही ये हड़ताल।
मुकदमा शुरु हुआ 4 जून 1940 को ओल्ड बैले की केंद्रीय अपराध अदालत में। ताज बनाम उधम सिंह। जज-एंटकिंसन अदालती कारवाई का लीडर था। ज्यूरी में 10 आदमी और 2 औरतें शामिल थीं। सरकारी वकील थे – मि.जी.बी मैलिऊर, मिस्टर सी हमफरे और मिस्टर जार्डिन। मेरा पक्ष रखा मि. सेंट जोन हुचिकसन, के.सी., मिस्टर आर.ई सीटन और मिस्टर वी.के. कृष्णा मेनन ने।
अदालत का क्लर्क बोला उधम सिंह पर आरोप है कि आपने 13 मार्च को माईकल फ्रांसिस ओडवायर का कत्ल किया है। इस आरोप के लिए वह सफाई दे रहा है। मैं दोषी नहीं हूं और गवाहियां सुनने के बाद यह साफ हो जाएगा कि यह दोषी है या नहीं।
सरकारी वकील मि. जी.बी. मैलिऊर ने मुकद्दमें की कार्रवाई शुरू की। अदालत में कुछ लोगों को ही पीछे बैठने की इजाज़त दी गई थी और पुलिस प्रत्येक अंदर आने वाले की ध्यान से छानबीन कर रही थी। सुनवाई के दौरान कम ही लोग मौजूद थे। केवल दो भारतीय, एक सिक्ख और एक हिन्दू नजर आए। वे भी लंच टाइम में चले गए। खुफिया रिपोर्ट के अनुसार कि मुकद्दमें की कार्रवाई के दौरान भारतीयों की गैर-हाजरी का कारण यह था कि सूरत अली जो मेरे बचाव के लिए अदालत की कार्रवाई संबंधी प्रबंधों से जुड़ा हुआ था, ने सिखों को चेतावनी भेजी कि वह दूर रहें, नहीं तो पुलिस उनको जांच में उलझा देगी।
जज ने फटाफट गवाहों को अदालत में पेश किया। कुल 24 गवाहों को अदालत में पेश किया। सरकारी वकील मैकलियूर, जज एटकिंसन और मेरे वकील की तरफ से सेंट जोन हुचिंसन ने ओडवायर की हत्या के संबंध में कई सवाल किए। उन सारे गवाहों के बयान मेरे खिलाफ थे।
मैं पूरे धैर्य से गवाहों के बयानों को ध्यान से सुन रहा था।
मेरे वकील सेंट जोन हुचिंसन ने मुझे कटघरे में बुलाने की इजाज़त मांगी। जज ने इजाजत दे दी। मैं कटघरे में गया। अदालत के कर्मचारी ने बाइबल आगे कर दी कसम खाने के लिए। मैने कहा मेरी बाइबल में कोई आस्था नहीं है। खानापूर्ति करनी है लो कर देता हूं।
मिस्टर सेंट जोन हुचिंसन ने कई सवाल पूछे और जज एटकिंसन ने भी कई सवाल पूछे। शाम हो गई । जज ने अदालत की कार्रवाई 5 जून सुबह 10.30 बजे तक स्थगित कर दी।
अगले दिन 5 जून को अदालत की कार्रवाई दोबारा शुरू हुई। जोन हुचिंसन ने जज को कहा कि मैंने पिछले 42 दिन से खाना नहीं खाया। मैं भूख हड़ताल पर था। शारीरिक कमजोरी महसूस कर रहा था इसलिए इसे बैठने की इजाज़त दी जाए। जज ने इजाजत दे दी। मेरे बचाव के लिए मेरे सिवाए कोई गवाह पेश नहीं किया।
सरकारी वकील मिस्टर मैकल्यिूर और जज एटकिंसन ने कई सवाल पूछे। गवाही के बाद मुद्दई की ओर से मिस्टर मैकलियूर ने ज्यूरी को संबोधन किया और मिस्टर जोन हुचिंसन ने मेरी ओर से संबोधन किया।
इसके बाद जज एटकिंसन ने मुकद्दमे का सारांश पेश करते हुए कहा जब एक स्वस्थ व्यक्ति जानबूझकर दूसरे को जान से मारता है तो वह हत्या का दोषी होता है। यह कोई घटना या आंशिक घटना नहीं थी। यह जानबूझ कर की गई कार्यवाही थी, क्योंकि आरोपी पूरे हथियार के साथ गया और एक शिकवे के साथ जिसको वह सरेआम मानता भी था। आरोपी को भारत में अंग्रेजी राज से नफरत है, वह मीटिंग में गया, पिस्तौल से गोलियां चलाकर रोष प्रकट करने के लिए।
अमृतसर में हुए कत्लेआम के समय ये वहां अधिकारी थे इसलिए वह जैटलैंड को भी मारना चाहता था। उसके पेट में भी दो गोलियां मारी थी, क्योंकि वह भारतीय स्टेट का सचिव था।
उसने ज्यूरी को कहा कि अगर आप सचमुच इससे सहमत हों तो आप मुझे हत्या का कसूरवार ठहरा सकते हो।
अदालत के क्लर्क ने पूछा क्या आप अपने फैसले से सहमत हो? ज्यूरी के फोरमैन ने कहा हम सहमत हैं। अदालत के क्लर्क ने फिर पूछा क्या आपने उधम सिंह को हत्या के लिए दोषी पाया या नहीं? फोरमैन ने कहा- हमने दोषी पाया है। अदालत के क्लर्क ने फिर पूछा आपने इसको हत्या का दोषी पाया है क्या यह आप सबका फैसला है। फोरमैन ने कहा हम सबका यही फैसला है।इस तरह अदालत को कुल एक घंटा 40 मिनट लगे मुझे दोषी ठहराने में।
अदालत का क्लर्क मुझे कहने लगा कि आपको हत्या का दोषी पाया गया है और मेरे पास सफाई में कहने के लिए है ही क्या? अदालत क्यों न मुझे कानून के मुताबिक मौत की सजा दे। मैंने कहा- हां सर, मैं कुछ कहना चाहता हूं।  मैंने अपने वकीलों को पूछे बिना चश्मा लगाया और बेझिझक बोलना शुरू कर दिया।
जज बोला – तुम्हें कानून के मुताबिक सजा क्यों न दी जाए।
मैंने अपने कागज निकाल लिए। कागजों को परखा और जज की ओर मुंह करके ऊंची आवाज में एक नारा लगाया – ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद। मैने कहा -आप कहते हो कि हिन्दुस्तान में शांति नहीं है। हमारे पास तो सिर्फ गुलामी है। तुम्हारी कथित सभ्यता ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें सिर्फ वह दिया है जो कि मानव नस्ल के लिए कूड़ा-करकट और निकृष्ट है। आपको अपने इतिहास पर भी नजर डालनी चाहिए। अगर आप में मानवीय नैतिकता का जरा भी अंश बचा है तो आपको शर्म से मर जाना चाहिए। अपने आपको संसार के सभ्य शासक कहने वाले कथित बुद्धिजीवी वहशी और खून चूसने के लिए घूमते हैं, असल में हरामी खून हैं।
जज एटकिंसन कहने लगा – मैंने तेरा कोई राजनीतिक भाषण नहीं सुनना। अगर इस केस से संबंधित कोई बात कहने को है तो कहो।
जिन कागजों में से पढ़ रहा था, उनको लहराते हुए मैंने कहा – मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं सिर्फ रोष प्रकट करना चाहता था।
जज एटकिंसन ने कहा – क्या ये अंग्रेजी में लिखा है?
मैंने कहा – जो मैं पढ़ रहा हूं, वह तू समझ सकता है।
जज एटकिंसन ने फिर कहा – अगर तू मुझे यह पढऩे के लिए दे दे तो मैं ओर अच्छी तरह इसको समझ सकूंगा।
इसी बीच सरकारी वकील जी.बी. मैकलियूर ने जज को कहा आप एमरजेंसी पावर एक्ट की धारा 4 के तहत यह निर्देश दे सकते हैं कि इसके बयान को रिपोर्ट न किया जाए।
जज एटकिंसन मेरी ओर देखकर बोला – तू यह जान ले कि जो कुछ भी तू कह रहा है, वो छपेगा नहीं। तू केवल मुद्दे की बात कर। अब बोलो।
मैंने कहा – मैं तो सिर्फ रोष व्यक्त कर रहा हूं। मेरा यही मतलब है। मैं उस पते के बारे में कुछ नहीं जानता। ज्यूरी को उस पते के बारे में गुमराह किया गया है। मुझे उस पते की कोई जानकारी नहीं है। मैं अब यह पढऩे जा रहा हूं।
मैं कागजों पर नजर डाल रहा था
जज एटकिंसन ने फिर कहा – ठीक है। फिर पढ़। केवल ये बता कि कानून के अनुसार सजा क्यों न दी जाए।
मैने ऊंची आवाज में कहा – मैं मौत की सजा से नहीं डरता। यह मेरे लिए कुछ भी नहीं है। मुझे मर जाने की भी कोई परवाह नहीं। इस बारे में मुझे कोई चिंता नहीं। मैं किसी मकसद के लिए मर रहा हूं। कटघरे पर हाथ मारकर मैं ललकारा – हम ब्रिटिश साम्राज्य के हाथों सताए हुए हैं। मैं मरने से नहीं डरता। मुझे मरने पर गर्व है। अपनी जन्मभूमि को आजाद करवाने के लिए मुझे अपनी जान देने पर भी गर्व होगा। मुझे उम्मीद है कि जब मैं चला गया तो मेरे हजारों देशवासी तुम्हें, सडिय़ल कुत्तों को बाहर फेंकेंगे और मेरे देश को आजाद करवाने के लिए आगे आयेंगे। मैं एक अंग्रेज ज्यूरी के सामने खड़ा हूं। यह अंग्रेज कचहरी है। जब आप भारत जाकर वापस आते हो तो आपको इनाम दिए जाते हैं या हाऊस आफ कॉमंस में स्थान दिया जाता है। पर जब हम इंग्लैंड आते हैं तो हमें मौत की सजा दी जाती है। मेरा और कोई इरादा नहीं था। फिर भी यह सजा झेलूंगा और मुझे इसकी कोई परवाह नहीं। पर एक वक्त आएगा, जब तुम सडिय़ल कुत्तों को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दिया जाएगा और तुम्हारा ब्रिटिश साम्राज्य तहस-नहस कर दिया जाएगा।
भारत की जितनी भी सड़कों पर तुम्हारे कथित लोकतंत्र और ईसाइयत के झंडे लहराते हैं। उन सड़कों पर तुम्हारी मशीनगनें हजारों ही गरीब औरतों और बच्चों के निर्दयता से कत्ल कर रही हैं। ये हैं तुम्हारे कुकर्म। हां, हां, तुम्हारे ही कुकर्म। मैं अंग्रेज सरकार की बात कर रहा हूं। मैं अंग्रेज लोगों के विरुद्ध बिल्कुल नहीं हूं। इंग्लैंड में मेरे भारतीय दोस्तों से भी ज्यादा अंग्रेज दोस्त हैं। मुझे इंग्लैंड के कामगारों से पूरी हमदर्दी है। मैं तो सिर्फ अंग्रेजी साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ हूं। ( गोरे कामगारों की ओर मुखातिब होकर) आप भी इन साम्राज्यवादी कुत्तों व वहशी जानवरों के कारण तकलीफ झेल रहे हो। भारत में सिर्फ गुलामी, मारकाट और तबाही है। अंगभंग कर दिए जाते हैं। इस बारे में इंग्लैंड में लोग अखबारों में नहीं पढ़ते, परन्तु यह हमें ही पता है कि भारत में क्या हो रहा है।
जज एटकिंसन बोला – मैं ये और नहीं सुनूंगा।
मैने कहा – तू इसलिए नहीं सुनना चाहता क्योंकि तू मेरे भाषण से ऊब गया है पर मेरे पास अभी कहने के लिए और बहुत कुछ है।
जज एटकिंसन ने फिर कहा – मैं तेरा भाषण ओर नहीं सुनूंगा।
मैने कहा – आपने मुझसे पूछा था कि मैं क्या कहना चाहता हूं। मैं वही कह रहा हूं, पर तुम गंदे लोग हमारी कुछ नहीं सुनना चाहते जो तुम हिन्दोस्तान में कर रहे हो।
मैंने चश्मा उतार लिया और अपनी जेब में वापस रखते हुए तीन बार बोला – इंकलाब, इंकलाब, इंकलाब। ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद, अंग्रेज कुत्ते मुर्दाबाद, भारत अमर रहे।
जज ने अपना फैसला सुना दिया कि उधम सिंह के संगीन जुर्म के मद्देनजर सजा-ए-मौत दी जाती है। 25 जून, 1940 सुबह 9 बजे तब तक फांसी पर लटकाया जाए जब तक कि जान न निकल जाए।
मैने कटघरे की रेलिंग पर मुक्का मारा। कानूनी सलाहकारों की मेज पर से ज्यूरी की तरफ थूक दिया। वार्डनों ने बलपूर्वक मुझे वहां से हटा दिया।
जज ने कहा – प्रेस को निर्देश दिए जाते हैं कि कटघरे में उधम सिंह द्वारा दिए गए भाषण के संबंध में कुछ भी नहीं छपना चाहिए।
मैंने जिन कागजों से अपना बयान पढ़ा था, उनको फाड़ कर छोटे-छोटे टुकड़े कर नीचे फेंक दिये। वार्डन ने उनको इकट्ठा कर लिया और उनकी जज ने फोटो खींच ली। जज की टोका-टाकी में मैं तो उन कागजों को अदालत में नहीं पढ़ पाया था। पर आप उनको इत्मीनान से पढ़ सकते हो। उन कागजों में मेरे पूरे विचार तो नहीं आ पाए पर आप उनसे अंदाजा लगा सकते हो मेरी जीवन-दृष्टि का। मेरी सोच का।
हांलांकि फांसी का दिन तो 25 जून रखा था लेकिन राजनीतिक हालात कुछ ऐसे थे कि ये डेट 31 जुलाई कर दी थी। मेरे अंतिम संस्कार की इजाजत नहीं दी गई थी। अंग्रेजी शासकों को डर था कि मेरी चिता की लपटों कहीं अंग्रेजी शासन भस्म न हो जाए। मेरे दोस्त जोहल को भी मेरे अंतिम सफर का साक्षी नहीं बनने दिया। सिर्फ इसलिए कि फांसी पर मेरी मुस्कान का तब्सरा कभी अंग्रेजी राज के खात्मे की इबारत ना बन जाए।
मेरे परिवार में कोई नहीं बचा था। मां-बाप-भाई सब गुजर गए थे। मैं एकदम अकेला रह गया था। मैंने मरकर अपना परिवार पा लिया। शहीदों का परिवार। जिंदगी तो मेरी गुमनामी में बीती। पर मौत ने मुझे अमर कर दिया। मजे की एक बात बताऊं आपको। मुझे दफनाया गया था। पता है कहां। पेंटनविल जेल में शहीद मदनलाल ढींगड़ा के बराबर में।
अपने मुल्क को आजाद देखने की मेरी सबसे बड़ी ख्वाहिश पूरी नहीं हुई थी। मुझे यकीन था कि मेरे देशवासी निकट भविष्य में जरूर आजाद हो जाएंगे। मुझे यकीन था मातृ-भूमि सदा के लिए गुलामी का चैंबर बनी नहीं रह सकती।
मरने के चौंतीस साल बाद 19 जुलाई 1974 को मेरी मिट्टी अपने देश की मिट्टी में मिली। मैंने तो नहीं पर मेरी अस्थियों ने जरूर अपने आजाद मुल्क की माटी की छुअन महसूस की।
नफरत से कोई क्रांतिकारी नहीं बनता। जिंदगी व अपने देश के लोगों से बेहद प्यार ही शहादत के रास्ते पर डालता है। मेरी पंसदीदा किताब थी वारिस शाह की – हीर। खासतौर पर काजी और हीर के सवाल-जवाब। उर्दू के शायर थे इकबाल उनका गीत भी मुझे बड़ा पसंद था हमेशा अपने साथ रखता। गाता-गुनगुनाता रहता अकेले में। आज आपके साथ गाना चाहता हूं गाओगे मेरे साथ।
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा
ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
‘इक़बाल’ कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।

Source:- डा. सुभाष चंद्र, शहीद उधमसिंह की आत्मकथा